Natasha

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राजा की रानी

मगर बात खतम होते न होते बहुत-से लोग एक साथ कह उठे, “नहीं, नहीं माता-रानी एकदम मार नहीं डाला। खूब मारा तो जरूर है, पर जान से नहीं मारा।”


रतन ने ऑंखें तरेरकर कहा, “तुम लोग क्या जानते हो? उसको अस्पताल भेजना होगा, लेकिन उसका पता नहीं, ढूँढे मिल नहीं रही है। न जाने कहाँ गयी। तुम सबके हाथ हथकड़ी पड़ सकती है, जानते हो?”

सुनते ही सबके मुँह सूख गये। किसी-किसी ने सटकने की भी कोशिश की। राजलक्ष्मी ने रतन की तरफ बड़ी निगाह से देखते हुए कहा, “तू उधर जाकर खड़ा हो, चल। जब पूछूँ? तब बताना। भीड़ के अन्दर मालती का बूढ़ा बाप फक चेहरा लिये खड़ा था; हम सभी उसे पहिचानते थे, इशारे से उसे पास बुलाकर पूछा, “क्या हुआ है विश्वनाथ सच-सच तो बताओ। छिपाने से या झूठ बोलने से विपत्ति में पड़ सकते हो।”

विश्वनाथ जो कुछ कहा, उसका संक्षिप्त सार यह है-कल रात से मालती अपने बाप के घर थी। आज दोपहर को वह तालाब में पानी भरने गयी थी। उसका पति नवीन वहीं कहीं छिपा हुआ था। मालती को अकेली पाकर उसने उसे खूब मारा- यहाँ तक कि सिर फोड़ दिया। मालती रोती हुई पहले यहाँ आई, पर हम लोगों से भेंट न हुई, तो वह गयी कुशारीजी की खोज में कचहरी। वहाँ उनसे भी मुलाकात न हुई, तो फिर वह सीधी चली गयी थाने में। वहाँ मारने-पीटने के निशान दिखाकर पुलिस को अपने साथ ले आई और नवीन को पकड़ा दिया। वह उस समय घर ही पर था, अपने हाथ से मुट्ठी-भर चावल उबालकर खाने बैठ रहा था, लिहाजा उसे भागने का भी मौका न मिला। दरोगा साहब ने लात मारकर उसका भात फेंक दिया, और फिर वे उसे बाँधकर ले गये।

हाल सुनकर राजलक्ष्मी के नीचे से लेकर ऊपर तक आग-सी लग गयी। उसे मालती जैसे देखे न सुहाती थी, वैसे नवीन पर भी वह खुश न थी। मगर उसका सारा गुस्सा आकर पड़ा, मेरे ऊपर। क्रुद्ध कण्ठ से बोली, “तुमसे सौ-सौ बार कहा है कि इन नीचों के गन्दे झगड़ों में मत पड़ा करो। जाओ, अब सम्हालो जाकर, मैं कुछ नहीं जानती।” इतना कहकर वह और किसी तरफ बिना देखे जल्दी से भीतर चली गयी। कहती गयी कि “नवीन को फाँसी ही होनी चाहिए। और वह हरामजादी अगर मर गयी हो तो आफत चुकी!”

कुछ देर के लिए हम सभी लोग मानो जड़वत् हो रहे। फटकार खाकर मुझे ऐसा मालूम होने लगा कि कल इतने ही वक्त मध्यआस्थ होकर मैंने जो इनका फैसला कर दिया था, सो अच्छा नहीं किया। न करता तो शायद आज यह दुर्घटना न होती। परन्तु मेरा अभिप्राय तो अच्छा ही था। सोचा था कि प्रेमलीला का जो अदृश्य स्रोत भीतर-ही-भीतर प्रवाहित होकर सारे मुहल्ले को निरन्तर गँदला कर रहा है, उसे मुक्त कर देने से शायद अच्छा ही होगा। अब देखता हूँ कि मैंने गलती की थी। परन्तु इसके पहले सारी घटना को ज़रा विस्तार के साथ कह देने की जरूरत है। मालती नवीन डोम की स्त्री तो जरूर है, पर यहाँ आने के बाद से देखा है कि डोमों के मुहल्ले-भर में वह एक आग की चिनगारी-सी है। कब किस परिवार में वह आग लगा देगी, इस सन्देह से किसी भी स्त्री के मन में शान्ति नहीं। यह युवती देखने में जैसी सुन्दरी है, स्वभाव की भी उतनी ही चपल है। वह चमकीली बिं‍दी लगाती है, नींबू का तेल डालकर जूड़ा बाँधती है, चौड़ी काली किनारी की मिल की साड़ी पहिनती है, राह-घाट में उसका माथे का घूँघट खिसककर कन्धों तक उतर आता है- उसकी उसे कोई परवाह नहीं रहती। इस मुखरा अल्हड़ लड़की के मुँह के सामने किसी को कुछ परवाह नहीं रहती। इस मुखारा अल्हड़ लड़की के मुँह के सामने किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ती, मगर पीछे-पीछे मुहल्ले की स्त्रियाँ उसके नाम के साथ जो विशेषण जोड़ा करती हैं उनका यहाँ उल्लेख नहीं किया जा सकता। पहले तो सुनने में आया कि मालती ने नवीन के साथ घर-गिरस्ती करने से इनकार ही कर दिया था, और वह मायके में ही रहा करती थी। कहा करती थी कि वह मुझे खिलाएगा क्या? और इसी धिक्कार के कारण ही, शायद, नवीन देश छोड़कर किसी शहर को चला गया था और वहाँ पियादे का काम करने लगा था। साल-भर हुआ, वह गाँव को लौटा था। शहर से आते वक्त वह मालती के लिए चाँदी की पौंची, महीन सूत की साड़ी- रेशम का फीता, एक बोतल गुलाब-जल और टीन का ट्रंक साथ लेता आया था और उन चीजों के बदले वह स्त्री को अपने ही नहीं लाया, बल्कि उसके हृदय पर भी उसने अपना अधिकार जमा लिया। मगर, यह सब मेरी सुनी हुई बातें है। फिर कब उसे स्त्री पर सन्देह जाग उठा, कब वह तालाब जाने के रास्ते आड़ में छिपकर सब देखने लगा, और उसके बाद जो कुछ शुरू हो गया, सो मैं ठीक नहीं जानता। हम लोग तो जबसे आये हैं तभी से देख रहे हैं कि इस दम्पति का वाग्युद्ध और हस्त-युद्ध एक दिन के लिए भी कभी मुल्तबी नहीं रहा। सिर-फुड़ौवल सिर्फ आज ही नहीं; और भी दो-एक दफा हो चुका है-शायद इसीलिए आज नवीन मण्डल अपनी स्त्री का सिर फोड़ आने पर भी निश्चिन्त चित्त से खाने बैठ रहा था। उसने कल्पना भी न की थी कि मालती पुलिस बुलाकर उसे बँधवाकर चालान करवा देगी। की सबेरे ही प्रभाती रागिणी की तरह मालती के तीक्ष्ण कण्ठ ने जब गगन-वेध करना शुरू कर दिया, तब राजलक्ष्मी ने घर का काम छोड़कर मेरे पास आकर कहा, “घर के ही पास रोज इस तरह का लड़ाई-दंगा सहा नहीं जाता- न हो तो कुछ रुपये-पैसे देकर इस अभागी को कहीं बिदा कर दो।”

मैंने कहा, “नवीन भी कम पाजी नहीं है। काम-काज कुछ करेगा नहीं, सिर्फ जुल्फें सँवारकर मछली पकड़ता फिरेगा, और हाथ में पैसा आते ही ताड़ी पीकर मार-पीट शुरू कर देगा।” कहने की जरूरत नहीं कि यह सब शहर से सीख आया था।

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